असम में मटक समेत 6 आदिवासी समुदाय सड़कों पर उतरे:राज्य की आबादी में इनकी हिस्सेदारी 12%; आंदोलन की कमान युवा संभाल रहे
असम इन दिनों अपने मशहूर सिंगर जुबीन गर्ग की मौत का मातम मना रहा है। हर घर शोक में डूबा है, लेकिन यहां की सरकार एक नई चुनौती का तनाव महसूस कर रही है। यह तनाव है यहां की 6 आदिवासी जनजातियों का। बीते 10 दिन में असम का मटक समुदाय सड़कों पर है। मटक समुदाय दो बड़ी रैलियां कर चुका है। हर बार 30 से 40 हजार आदिवासी हाथ में मशाल लेकर सड़कों पर उतरे हैं। रैली डिब्रूगढ़ में हुई, लेकिन इसकी धमक गुवाहाटी समेत पूरे राज्य में महसूस की गई। यह समुदाय खुद के लिए अनुसूचित जनजाति का दर्जा और पूर्ण स्वायत्तता मांग रहा है। अकेले मटक समुदाय ही नहीं, पांच अन्य जनजातियां भी हैं, जो सड़कों पर उतरी हैं। ये राज्य की कुल आबादी का करीब 12% हैं। इस आंदोलन की कमान भी युवा ही संभाल रहे हैं। रैली की भीड़ में ज्यादातर आबादी 30 साल से कम की है। ऑल असम मटक स्टूडेंट यूनियन के केंद्रीय अध्यक्ष संजय हजारिका ने बताया, हम मूल रूप से जनजाति हैं, लेकिन आज तक हमें दर्जा नहीं मिला। मौजूदा सरकार ने हर बार हमसे धोखा किया। लिहाजा अब हम आंदोलन तब तक जारी रखेंगे, जब तक कोई समाधान नहीं निकलता। मटक बहुल हर जिले में रैली निकालेंगे। नई दिल्ली जाकर विरोध दर्ज कराएंगे। दरअसल, मटक समुदाय की मांग काफी पुरानी है और इस बारे में उनके प्रतिनिधियों की सरकार के साथ कई दौर की बातचीत हो चुकी है, लेकिन समाधान नहीं निकल पाया। अब असम में विधानसभा चुनाव नजदीक हैं, इसलिए सीएम हिमंता बिस्व सरमा तनाव में हैं। वो बार-बार मटक समुदाय को बातचीत के लिए बुला रहे हैं, लेकिन समुदाय ने मना कर दिया है। वो सड़कों पर उतर आया है। एक्सपर्ट बोले- मटक समुदाय ने पहली बार बड़े स्तर पर विरोध किया 2 दशक से पत्रकारिता कर रहे राजीव दत्त बताते हैं कि मटक समुदाय सालों से उपेक्षित महसूस कर रहा है। पहली बार इतने बड़े स्तर पर इन्होंने विरोध प्रदर्शन किया है। पहले 19 सितंबर को तिनसुकिया में निकाली रैली में 50 हजार से ज्यादा लोग थे। 26 सितंबर वाली डिब्रूगढ़ की रैली में 30 हजार से ज्यादा। इस भीड़ ने सरकार को भी सोचने पर मजबूर कर दिया है। यह प्रदर्शन ऐसे समय में हुआ, जब एक दिन पहले ही सीएम सरमा ने तिनसुकिया में हुए बड़े विरोध प्रदर्शन के बाद 25 सितंबर को मटक नेताओं को एक बैठक के लिए आमंत्रित किया था। समुदाय ने शामिल होने से इनकार कर दिया। मटक से पहले पिछले महीने डिब्रूगढ़ में ही मोरान समुदाय ने भी अनुसूचित जाति के दर्जे के लिए बड़ा आंदोलन किया था। ऑल मोरान स्टूडेंट्स यूनियन के नेतृत्व में रैली निकाली गई। इसका नारा था- ‘नो एसटी, नो रेस्ट।’ यूनियन के महासचिव जोयकांता मोरान ने भास्कर को बताया कि 2014 के बार सरकार के साथ कई बार बैठक की, लेकिन कुछ नहीं हुआ। इस बार पूरा समुदाय गुस्से में है। हम हर बात को लिखित में ला रेह हैं। इसलिए 25 सितंबर को सीएम से वार्ता हुई, उन्होंने 25 नवंबर तक का समय दिया है। अगर डेडलाइन में काम नहीं हुआ, तो हम राज्य में आर्थिक नाकेबंदी कर देंगे। ऐसे समझें... आखिर असम सरकार को क्या डर सता रहा मटक का साथ अन्य पांच आदिवासी समुदाय चाय जनजाति, ताई अहोम, मोरन, चुटिया और कोच राजबोंगशी भी हैं। ये वही समुदाय हैं, जिन्हें 2014 का आम चुनाव जीतने के बाद भाजपा सरकार ने एसटी का दर्जा देने का वादा किया था।2011 में असम की कुल आबादी 3.12 करोड़ में 38 लाख यानी 12.4% आदिवासी हैं। यदि इन छह जनजातियों को एसटी दर्जा मिल जाता है तो ये कुल आबादी का 40% हो जाएंगे। इसलिए राज्य के गैर आदिवासियों में यह शंका है कि यदि राज्य में एसटी आबादी 50% हुई तो असम भी नगालैंड और बाकी पूर्वोत्तर राज्यों की तरह एक पूर्ण एसटी प्रदेश बन जाएगा। उसे छठी अनुसूची में शामिल करना केंद्र की मजबूरी हो जाएगी। फिर सभी कामों के लिए केंद्र सरकार को इनकी अनुमति लेनी होगी।

असम में मटक समेत 6 आदिवासी समुदाय सड़कों पर उतरे: राज्य की आबादी में इनकी हिस्सेदारी 12%; आंदोलन की कमान युवा संभाल रहे
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असम इन दिनों अपने मशहूर सिंगर जुबीन गर्ग की मौत का मातम मना रहा है। हर घर शोक में डूबा है, लेकिन यहां की सरकार एक नई चुनौती का तनाव महसूस कर रही है। यह तनाव है यहां की 6 आदिवासी जनजातियों का। बीते 10 दिन में असम का मटक समुदाय सड़कों पर है। मटक समुदाय दो बड़ी रैलियां कर चुका है। हर बार 30 से 40 हजार आदिवासी हाथ में मशाल लेकर सड़कों पर उतरे हैं। रैली डिब्रूगढ़ में हुई, लेकिन इसकी धमक गुवाहाटी समेत पूरे राज्य में महसूस की गई। यह समुदाय खुद के लिए अनुसूचित जनजाति का दर्जा और पूर्ण स्वायत्तता मांग रहा है।
आंदोलन की पृष्ठभूमि
अकेले मटक समुदाय ही नहीं, बल्कि पांच अन्य जनजातियां भी हैं, जो सड़कों पर उतरी हैं। ये राज्य की कुल आबादी का करीब 12% हैं। इस आंदोलन की कमान भी युवा ही संभाल रहे हैं। रैली की भीड़ में ज्यादातर आबादी 30 साल से कम की है। ऑल असम मटक स्टूडेंट यूनियन के केंद्रीय अध्यक्ष संजय हजारिका ने बताया, "हम मूल रूप से जनजाति हैं, लेकिन आज तक हमें दर्जा नहीं मिला। मौजूदा सरकार ने हर बार हमसे धोखा किया। लिहाजा अब हम आंदोलन तब तक जारी रखेंगे, जब तक कोई समाधान नहीं निकलता।"
भविष्य की रणनीति
मटक बहुल हर जिले में रैली निकालेंगे और नई दिल्ली जाकर विरोध दर्ज कराएंगे। दरअसल, मटक समुदाय की मांग काफी पुरानी है, और इस बारे में उनके प्रतिनिधियों की सरकार के साथ कई दौर की बातचीत हो चुकी है, लेकिन समाधान नहीं निकल पाया। अब असम में विधानसभा चुनाव नजदीक हैं, और मुख्यमंत्री हिमंता बिस्व सरमा तनाव में हैं।
विशेषज्ञों की राय
एक्सपर्ट बोले- मटक समुदाय ने पहली बार बड़े स्तर पर विरोध किया। पत्रकारिता के दो दशक के अनुभव वाले राजीव दत्त बताते हैं कि मटक समुदाय सालों से उपेक्षित महसूस कर रहा है। पहली बार इतने बड़े स्तर पर इन्होंने विरोध प्रदर्शन किया है। पहले 19 सितंबर को तिनसुकिया में निकाली रैली में 50 हजार से ज्यादा लोग आए थे। 26 सितंबर वाली डिब्रूगढ़ की रैली में 30 हजार से ज्यादा लोग शामिल हुए। इस भीड़ ने सरकार को भी सोचने पर मजबूर कर दिया है।
आंदोलनों का सिलसिला
मटक से पहले पिछले महीने डिब्रूगढ़ में ही मोरान समुदाय ने भी अनुसूचित जाति के दर्जे के लिए बड़ा आंदोलन किया था। ऑल मोरान स्टूडेंट्स यूनियन के नेतृत्व में रैली निकाली गई। इसका नारा था- ‘नो एसटी, नो रेस्ट।’ यूनियन के महासचिव जोयकांता मोरान ने कहा, "हम हर बात को लिखित में ला रहे हैं। अगर डेडलाइन में काम नहीं हुआ, तो हम राज्य में आर्थिक नाकेबंदी कर देंगे।"
राजनीतिक परिणाम
मटक का साथ अन्य पांच आदिवासी समुदाय चाय जनजाति, ताई अहोम, मोरन, चुटिया और कोच राजबोंगशी भी दे रहे हैं। ये वही समुदाय हैं, जिन्हें 2014 के आम चुनाव जीतने के बाद भाजपा सरकार ने एसटी का दर्जा देने का वादा किया था। 2011 में असम की कुल आबादी 3.12 करोड़ में 38 लाख यानी 12.4% आदिवासी हैं। यदि इन छह जनजातियों को एसटी दर्जा मिल जाता है, तो ये कुल आबादी का 40% हो जाएंगे। इस स्थिति में राज्य के गैर आदिवासियों में शंका है कि यदि एसटी आबादी 50% हो गई, तो असम भी एक पूर्ण एसटी प्रदेश बन जाएगा।
निष्कर्ष
असम के आदिवासी समुदायों का यह आंदोलन न केवल उनकी पहचान और अधिकारों के लिए है, बल्कि यह राजनीति में भी व्यापक बदलाव ला सकता है। जब चुनाव नजदीक हों, तो यह मुद्दा और भी अधिक संवेदनशील बन सकता है। इस आंदोलन के परिणाम राज्य के सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य पर गहरा प्रभाव डाल सकते हैं।
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