गवर्नर-प्रेसिडेंट के लिए डेडलाइन तय करने का मामला:CJI गवई की अध्यक्षता वाली 5 जस्टिस वाली बेंच 22 जुलाई को सुनवाई करेगी

क्या राष्ट्रपति और राज्यपाल के जरिए विधानसभा से पारित विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए न्यायिक आदेशों के तहत कोई समय-सीमा निर्धारित की जा सकती है? इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट में 22 जुलाई को सीजेआई बीआर गवई की अध्यक्षता वाली पांच जजों की बेंच सुनवाई करेगी। बेंच में जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पीएस नरसिंह और जस्टिस अतुल एस चंदुरकर शामिल हैं। मामला सुप्रीम कोर्ट ने 8 अप्रैल के फैसले से जुड़ा है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के आर्टिकल 142 का इस्तेमाल करते हुए राष्ट्रपति और राज्यपाल के लिए विधेयक पारित करने की समयसीमा तय की थी। जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की बेंच ने कहा था कि राज्यपाल के पास कोई वीटो पावर नहीं है। राज्यपाल के भेजे गए बिल पर राष्ट्रपति को 3 महीने के भीतर फैसला लेना होगा। 15 मई को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने संविधान के आर्टिकल 143 का इस्तेमाल करके सुप्रीम कोर्ट से ही 14 सवाल पूछ थे। मुर्मू ने राष्ट्रपति और राज्यपाल की शक्तियों, न्यायिक दखल और समय-सीमा तय करने जैसी बातों पर स्पष्टीकरण मांगा था। आर्टिकल 143 क्या है? भारत के संविधान में आर्टिकल 143 के तहत राष्ट्रपति को यह अधिकार मिलता है कि वो सुप्रीम कोर्ट से राय मांग सकते हैं। यह संवैधानिक मुश्किलों को सुलझाने में मदद करता है। इसमें मुख्य रूप से दो तरह की राय के लिए अलग-अलग क्लॉज हैं- आर्टिकल 143 (1): राष्ट्रपति किसी भी कानूनी या तथ्यात्मक सवाल पर सुप्रीम कोर्ट की राय मांग सकते हैं। यह जरूरी नहीं कि वह सवाल किसी मौजूदा विवाद से जुड़े हों। उदाहरण से समझें तो कोई नया कानून बनाने से पहले उसकी संवैधानिक वैधता पर राय ली जा सकती है। आर्टिकल 143 (2): अगर कोई विवाद किसी ऐसी संधि, समझौते या अन्य दस्तावेजों से जुड़ा है, जो संविधान लागू होने यानी 26 जनवरी 1950 से पहले से चल रहा था, तो राष्ट्रपति सुप्रीम कोर्ट से उस पर राय मांग सकते हैं। पहले जानिए यह मामला शुरू कहां से हुआ... दरअसल, तमिलनाडु विधानसभा में 2020 से 2023 के बीच 12 विधेयक पारित किए गए। इन्हें मंजूरी के लिए राज्यपाल आरएन रवि के पास भेजा गया। उन्होंने विधेयकों पर कोई कार्रवाई नहीं की, दबाकर रख लिया। अक्टूबर 2023 में तमिलनाडु सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगाई। इसके बाद राज्यपाल ने 10 विधेयक बिना साइन किए लौटा दिए और 2 विधेयकों को राष्ट्रपति के पास विचार के लिए भेज दिया। सरकार ने 10 विधेयक दोबारा पारित कर राज्यपाल के पास भेजे। राज्यपाल ने इस बार इन्हें राष्ट्रपति के पास भेज दिया। सुप्रीम कोर्ट ने 8 अप्रैल 2025 को एक अहम फैसले में राज्यपाल के इस तरह विधेयक अटकाने को अवैध बता दिया। जस्टिस जेबी पारदीवाला की बेंच ने राज्यपाल से कहा- 'आप संविधान से चलें, पार्टियों की मर्जी से नहीं।' राज्यपाल ने 'ईमानदारी' से काम नहीं किया। इसलिए कोर्ट ने आदेश दिया कि इन 10 विधेयकों को पारित माना जाए। यह पहली बार था जब राज्यपाल की मंजूरी के बिना विधेयक पारित हो गए। संविधान में निर्धारित नहीं विधेयक की मंजूरी-नामंजूरी का समय संविधान में यह निर्धारित नहीं किया गया है कि विधानसभा से पारित विधेयक को राज्यपाल या राष्ट्रपति को कितने दिनों के भीतर मंजूरी या नामंजूरी देनी होगी। संविधान में सिर्फ इतना लिखा है कि उन्हें 'जितनी जल्दी हो सके' फैसला लेना होगा। सुप्रीम कोर्ट ने इस ‘जितनी जल्दी हो सके’ को डिफाइन किया.... अब तारीखों में 8 अप्रैल की सुनवाई के बाद का पूरा मामला... 15 मई: राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट से 14 सवाल पूछे प्रेसिडेंट और गवर्नर के लिए डेडलाइन तय करने पर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने आर्टिकल 143 (1) के तहत सुप्रीम कोर्ट से 14 सवाल करते हुए राय मांगी थी। राष्ट्रपति मुर्मू ने राष्ट्रपति-राज्यपाल की शक्तियों, न्यायिक दखल और समय-सीमा तय करने जैसी बातों पर स्पष्टीकरण मांगा गया था। राष्ट्रपति ने पूछा था कि संविधान में इस तरह की कोई व्यवस्था ही नहीं है, तो सुप्रीम कोर्ट कैसे राष्ट्रपति-राज्यपाल के लिए बिलों पर मंजूरी की समय सीमा तय करने का फैसला दे सकता है। गवर्नर की ओर से राष्ट्रपति को भेजे गए बिल पर सुप्रीम कोर्ट के 4 पॉइंट्स 1. बिल पर फैसला लेना होगा: सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अनुच्छेद 201 कहता है कि जब विधानसभा किसी बिल को पास कर दे। उसे राज्यपाल के पास भेजा जाए और राज्यपाल उसे राष्ट्रपति के पास विचार के लिए भेज दे। इस स्थिति में राष्ट्रपति को बिल पर मंजूरी देनी होगी या फिर बताना होगा कि मंजूरी नहीं दे रहे हैं। 2. ज्यूडिशियल रिव्यू होगा: सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि आर्टिकल 201 के तहत राष्ट्रपति का निर्णय की न्यायिक समीक्षा की जा सकती है। अगर बिल में केंद्र सरकार के निर्णय को प्राथमिकता दी गई हो, तो कोर्ट मनमानी या दुर्भावना के आधार पर बिल की समीक्षा करेगा। अदालत ने कहा कि बिल में राज्य की कैबिनेट को प्राथमिकता दी गई हो और राज्यपाल ने विधेयक को मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह के विपरीत जाकर फैसला किया हो तो कोर्ट के पास बिल की कानूनी रूप से जांच करने का अधिकार होगा। 3. राज्य सरकार को राज्यपाल को कारण बताने होंगे: सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि जब कोई समय-सीमा तय हो, तो वाजिब टाइम लाइन के भीतर फैसला करना चाहिए। राष्ट्रपति को बिल मिलने के 3 महीने के भीतर फैसला लेना अनिवार्य होगा। यदि देरी होती है, तो देरी के कारण बताने होंगे। 4. बिल बार-बार वापस नहीं भेज सकते: अदालत ने कहा कि राष्ट्रपति किसी बिल को राज्य विधानसभा को संशोधन या पुनर्विचार के लिए वापस भेजते हैं। विधानसभा उसे फिर से पास करती है, तो राष्ट्रपति को उस बिल पर फाइनल डिसीजन लेना होगा और बार-बार बिल को लौटाने की प्रक्रिया रोकनी होगी। 17 अप्रैल: धनखड़ बोले- अदालतें राष्ट्रपति को आदेश नहीं दे सकतीं उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने 17 अप्रैल को कहा था कि अदालतें राष्ट्रपति को आदेश नहीं दे सकतीं। संविधान के अनुच्छेद 142 के तह

Jul 20, 2025 - 00:33
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गवर्नर-प्रेसिडेंट के लिए डेडलाइन तय करने का मामला:CJI गवई की अध्यक्षता वाली 5 जस्टिस वाली बेंच 22 जुलाई को सुनवाई करेगी

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भारत की न्यायिक प्रणाली में एक महत्वपूर्ण मुद्दा सामने आया है, जब सुप्रीम कोर्ट ने गवर्नर और प्रेसिडेंट के लिए विधेयकों पर निर्णय लेने के संबंध में समय-सीमा सुनिश्चित करने की संभावना पर सुनवाई का निर्णय लिया है। 22 जुलाई को सीजेआई बीआर गवई की अध्यक्षता में एक पांच जस्टिस वाली बेंच इस मामले पर संज्ञान लेगी।

सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई की आवश्यकता

क्या राष्ट्रपति और राज्यपाल के जरिए विधानसभा से पारित विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए न्यायिक आदेशों के तहत कोई समय-सीमा निर्धारित की जा सकती है? इस सवाल का उत्तर खोजने के लिए सुप्रीम कोर्ट न केवल संवैधानिक अधिकारों की व्याख्या कर रहा है, बल्कि यह राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्थाओं के अंतर्संबंधों की भी परख कर रहा है।

मामले का पृष्ठभूमि

यह मामला सुप्रीम कोर्ट के 8 अप्रैल के एक फैसले से जुड़ा हुआ है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के आर्टिकल 142 के तहत राष्ट्रपति और राज्यपाल के लिए विधेयक पारित करने की समयसीमा तय की थी। जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की बेंच ने राज्यपाल की वीटो पावर को खारिज कर दिया। महत्वपूर्ण रही यह बात कि राष्ट्रपति को विधेयक मिलने के 3 महीने के भीतर निर्णय लेना अनिवार्य हो गया।

राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की चिंताएं

15 मई को, राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट से 14 सवाल पूछते हुए आर्टिकल 143 का उपयोग करते हुए अपने संदेह व्यक्त किए। उन्होंने राष्ट्रपति और राज्यपाल की शक्तियों, न्यायिक हस्तक्षेप और विधेयकों पर निर्णय की समयसीमा जैसी बातों पर स्पष्टीकरण मांगा। उनका मुख्य प्रश्न यह था कि जब संविधान में समय सीमा का कोई उल्लेख नहीं है, तो सुप्रीम कोर्ट कैसे यह निर्धारित कर सकता है।

संविधान का आर्टिकल 143

भारत के संविधान का आर्टिकल 143 राष्ट्रपति को यह अधिकार प्रदान करता है कि वे सुप्रीम कोर्ट से राय मांग सकते हैं। इसमें स्पष्ट किया गया है कि यदि कोई सवाल कानूनी या तथ्यात्मक हो, तो राष्ट्रपति उसकी वैधता पर राय ले सकते हैं।

तमिलनाडु विधानसभा का मामला

तमिलनाडु विधानसभा में 2020 से 2023 के बीच 12 विधेयक पारित किए गए थे, जो राज्यपाल आरएन रवि के पास अटक गए थे। अनिवार्य निर्णय न होने के कारण यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुँच गया। अदालत ने जुलाई में सुनवाई करने का निर्णय लिया, जिससे यह स्पष्ट होगा कि गवर्नर और प्रेसिडेंट पर लागू समय-सीमा का क्या प्रभाव पड़ेगा।

निष्कर्ष

सुप्रीम कोर्ट की आगामी सुनवाई न केवल संवैधानिक अनुशासन को सुनिश्चित करने का प्रयास है, बल्कि यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया में बेहतर समंजस्य स्थापित करने की ओर भी एक कदम है। न्यायपालिका का यह कदम राज्य और केंद्र के बीच वैधानिक संबंधों का पुनर्मूल्यांकन करने में मदद करेगा और विधायिका की भूमिका को मजबूत करेगा। इस मामले का परिणाम आने वाले समय में अनेक संवैधानिक मुद्दों पर प्रभाव डालेगा।

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